आ कि वाबस्ता हैं ...
आ कि वाबस्ता हैं, उस हुस्न की यादें तुझ से जिस ने इस दिल को परी-ख़ाना बना रक्खा था जिस की उल्फ़त में भुला रक्खी थी दुनिया हम ने दहर को दहर का अफ़्साना बना रक्खा था आश्ना हैं तिरे क़दमों से वो राहें जिन पर उस की मदहोश जवानी ने इनायत की है कारवाँ गुज़रे हैं जिन से उसी रानाई के जिस की इन आँखों ने बे-सूद इबादत की है आश्ना हैं तिरे क़दमों से वो राहें जिन पर उस की मदहोश जवानी ने इनायत की है कारवाँ गुज़रे हैं जिन से उसी रानाई के जिस की इन आँखों ने बे-सूद इबादत की है तुझ से खेली हैं वो महबूब हवाएँ जिन में उस के मल्बूस की अफ़्सुर्दा महक बाक़ी है तुझ पे बरसा है उसी बाम से महताब का नूर जिस में बीती हुई रातों की कसक बाक़ी है तू ने देखी है वो पेशानी वो रुख़्सार वो होंट ज़िंदगी जिन के तसव्वुर में लुटा दी हम ने तुझ पे उट्ठी हैं वो खोई हुई साहिर आँखें तुझ को मालूम है क्यूँ उम्र गँवा दी हम ने हम पे मुश्तरका हैं एहसान ग़म-ए-उल्फ़त के इतने एहसान कि गिनवाऊँ तो गिनवा न सकूँ हम ने इस इश्क़ में क्या खोया है क्या सीखा है जुज़ तिरे और को समझाऊँ तो समझा न सकूँ आजिज़ी सीखी ग़रीबों की हिम...