तुम्हारे साथ नित्य विरोध; अब सहा नहीं जाता...



तुम्हारे साथ नित्य विरोध; अब सहा नहीं जाता,
दिन-प्रतिदिन ये ऋण बढ़ता ही जा रहा है।
न जाने कितने लोग; तेरी सभा में आये,
तुझे प्रणाम किये…चले गये।
मैं मलिन वस्त्रों में लिपटा बहार ही छिपा रहा,
मेरा मान मिट्टी में मिल गया ।
मन की इस वेदना को मैं तुझसे कैसे कहूँ?
तुझसे मन की बात कहने का साहस नहीं होता।
इस अपमान को परे कर, अब यही प्रार्थना है की मुझे अपने चरणों में क्रीतदास की तरह पड़ा रहने दे
तुम्हारे साथ नित्य विरोध; अब सहा नहीं जाता।

..गीतक्रम १४५ से (गीतांजलि : रविन्द्र नाथ ठाकुर )

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